बात जब कभी, जहाँ कहीं भी साहित्य और राजनीति की चलती-निकलती है तो आम तौर पर प्रेमचंद की वो बात बार-बार, बारम्बार दोहराई जाती है जो उन्होंने 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक अधिवेशन’ की अध्यक्षता करते हुए कही थी - “साहित्य राजनीति के आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है।” साहित्यिक सुभाषित की तरह दोहराई जाने वाली इस पंक्ति के समानांतर ही पांच साल कम आधी सदी पहले वाला महादेवी वर्मा और राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया का वाकया भी पूरी गर्वोक्ति के साथ सुनाया जाता है कि किस तरह साहित्य के आगे राजनीति को झुकना पड़ा था। किस्से-कहानियों, शेरो-शायरी, कविता-नाटकों, दास्तानों-गुफ़्तगू में याने कि पढ़त-लिखत, कहन-सुनन की दुनिया से ताल्लुकात रखने वाली आज की पीढ़ी ने इस वाकये को कभी सुना-पढ़ा भी है तो उनके नसीब में आधा सच्चा, आधा झूठा फ़साना ही आया है। राजनीति झुकी ज़रूर थी लेकिन राजनीति से ही, न कि साहित्य से। साहित्य तो महज़ एक आड़ था, इस आड़ के पीछे राजनीति की चौसर कुछ ऐसी बिछाई गई कि कभी नेहरु के आगे मुखर होकर बोलने वाले राजस्थान के अब तक के एक मात्र दलित मुख्यमंत्री नेहरु के बेटी इंदिरा के सामने बेबस हो गए और उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। लाज़िम है कि पहले इस किस्से को समझ लिया जाए। किस्सा मुख़्तसर यों कि वह दस जनवरी, शनिवार की एक सर्द साँझ थी। सन था 1981 और स्थान था गुलाबी नगर जयपुर का रवींद्र मंच। इस रात एक साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन था। इसमें जयपुर के साहित्यिक, सांस्कृतिक, पत्रकारिता और प्रबुद्ध वर्ग के अनेक लोग मौजूद थे। जो नाम उन सब के लिए उल्लेखनीय था, वो था - महादेवी वर्मा। महादेवी जीं उस दौर में अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थीं। हिंदी साहित्य में ‘आधुनिक मीरां’ के नाम से भी ख्यात हो चुकीं थीं। वे इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं। अध्यक्षता कर रहे थे प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया। कार्यक्रम में अपने अध्यक्षीय संबोधन में मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाड़िया ने कुछ ऐसा कह दिया कि वो इनके लिए ‘पॉलिटिकल हाराकिरी’ (राजनीतिक आत्महत्या) तो साबित हुआ ही, उधर, महादेवी जी के बारे में भी बरसों से यह लिखा,पढ़ा,कहा,माना जाता रहा है कि इन्होंने इंदिरा गांधी से अपने संबंधों का इस्तेमाल कर जगन्नाथ पहाड़िया को अपने पद से हटवा दिया। यह अर्धसत्य है। बात यह थी कि उस रात रवींद्र मंच के खचाखच भरे सभागार में पहाड़िया ने अपने सरल स्वभाव या कविता-साहित्य में अरुचि होने की वजह से या किसी और कारण से सीधे-सट्ट कह दिया कि- “महादेवी वर्मा की कविताएं मेरे कभी समझ में नहीं आईं कि वे आखिर कहना क्या चाहती हैं? उनकी कविताएं आम लोगों के सिर के ऊपर से निकल जाती हैं, मुझे भी कुछ समझ में नहीं आतीं। आज का साहित्य जन-जन को समझ आए ऐसा होना चाहिए।” इसी कार्यक्रम में मौजूद वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित ने सोशल मीडिया पर अपना संस्मरण साझा करते हुए लिखा- समारोह में महादेवीजी का व्याख्यान था। कविता-पाठ करना वे बहुत पहले छोड़ चुकी थीं। समारोह में पहाड़िया बोले-”यह छायावाद-वायावाद हमें तो कभी समझ आया नहीं । जब पढ़ते थे तब भी नहीं आया और अब भी नहीं आता। सारे दिन धूप में सँघर्ष करते लोगों को छायावाद कहाँ से समझ आये..!”
करीब पैंतालीस साल पहले हुए इस वाकये से यह तो स्पष्ट और निर्विवाद है कि उसमें मुख्यमंत्री पहाड़िया ने महादेवी वर्मा और छायावादी कविता को लेकर ऐसी टिप्पणी की ज़रूर थी जो ‘सामान्य शिष्टाचार, ‘प्रोटोकॉल’ कहें या मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए ‘अप्रिय और ग़ैर ज़रूरी’ थी, ज़ाहिर है सभी साहित्य प्रेमियों का इस पर भड़कना भी स्वाभाविक ही था। कार्यक्रम में मौजूद युवा लेखक-पत्रकार सत्यनारायण ने सबसे पहले खड़े होकर वहीं भरे सभागार में पहाड़िया का प्रतिरोध के दिया । आगे चलकर जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर बने डॉ. सत्यनारायण अब उस प्रकरण को याद करते हुए बताते हैं कि कार्यक्रम में उनके साथ कवि विनोद पदरज और पत्रकार अशोक शास्त्री भी थे। वे मानते हैं कि पहाड़िया की इस टिप्पणी पर महादेवी जीं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी। इस घटना को लेकर समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में और बाद में सोशल मीडिया पर उसे अपने-अपने तौर पर लिखा जाता रहा है और इस प्रकरण को ऐसे स्थापित किया जाता है कि महादेवी वर्मा की वजह से एक मुख्यमंत्री की कुर्सी चली गई। सच्चाई यह भी है कि इन पैंतालीस सालों में महादेवी वर्मा से जुड़ा ऐसा कोई लेख-आलेख साक्षात्कार नहीं मिलता है जिससे यह साबित हो कि महादेवी जीं ने इस प्रकरण से रुष्ट होकर इंदिरा गांधी से ‘अपने अपमान’ संबंधी कोई शिकायत की थी। महादेवी वर्मा के सामाजिक और साहित्यिक जीवन को जानने वाले भी मानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन मे हमेशा एक निश्चित दूरी, सौम्यता और गरिमा बनाए रखी थीं। यहाँ तक कि उस कार्यक्रम में भी महादेवी जीं पहाड़िया की बात सुनकर भी शांत ही रही थीं, जैसा कि कल्पित लिखते हैं - “..पहाड़िया अपना उद्घाटन भाषण देकर रवाना हुए । महादेवीजी ने पूरी गरिमा निभाते हुए पहाड़िया की बातों का नोटिस भी नहीं लिया और अपना व्याख्यान दिया।” दरअसल इस प्रकरण के बाद राजस्थान की राजनीति में जो उबाल आया, उसके मूल में यह प्रकरण कत्तई केंद्र में नहीं था, इस वाकये ने तो उस असंतोष या विरोध में तेज उबाल लाने में ‘कैटेलिस्ट’ की भूमिका निभाई थी, जो पहले से ही खुदबुदा रहा था। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि महादेवी वर्मा की कविताओं पर टिप्पणी तो बहाना बना, हटाने का असली कारण उनका विरोध था। इसकी पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी थी। वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी के पूर्व राजस्थान ब्यूरो प्रमुख और राज्य के पूर्व सूचना आयुक्त नारायण बारेठ बताते हैं, “पहाड़िया से इस्तीफा लेने का यह एक तात्कालिक बहाना-कारण हो सकता है, लेकिन मुख्य कारण यह नहीं था,और भी कई कारण थे, यह कारण तो उसमें जुड़ गया था।”
वस्तुतः उस दौर में राजस्थान की राजनीति ने काफी उतार-चढ़ाव देखे थे। उतर प्रदेश और बिहार जैसे राजनीतिक रूप से सजग, जीवंत, आंदोलित राज्यों से इतर यों तो यह रेगिस्तानी प्रदेश राजनीतिक रूप से उनींदा ही था लेकिन आपात काल ने पूरे देश की तरह राजस्थान को भी झकझोर दिया था। 1977 से 81 तक यानी इन चार सालों में राजस्थान ने चार मुख्यमंत्रियों सहित दो बार राष्ट्रपति शासन देख लिया। यह पहली बार था इतनी छोटी अवधि ने राजस्थान को राजनीतिक रूप से मथ दिया था। जाने-अनजाने में राजस्थान की राजनीति और समाज में बदलाव की आहटें साफ सुनाई देने लगी थीं। इतिहास का यह वह दौर था, जब आजादी के बाद 1977 तक राजस्थान के सात में से पांच मुख्यमंत्री ब्राह्मण रहे थे। इसी दौर में दलित समुदाय से जगन्नाथ पहाड़िया खामोशी से उभरते जा रहे थे। उन्हें राजनीतिक रूप से उभारने में जवाहरलाल नेहरु की भी भूमिका थी। राजस्थान के सबसे पिछड़े जिलों में शुमार भरतपुर के भुसावर-वैर कस्बों और आसपास इलाकों में पहाड़िया ने खटीक समुदाय के अलावा अन्य पिछड़े-दलित वर्गों में युवावस्था में ही अच्छी पैठ जमा ली थी। उनकी कार्यकुशलता और जनाधार देखकर 1957 मेें काँग्रेस के दिग्गज नेता मास्टर आदित्येंद्र जगन्नाथ पहाड़िया को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु से मिलाने ले गए। नेहरु ने युवा पहाड़िया से देश-प्रदेश के हालात के बारे में पूछा। पहाड़िया ने बेबाकी से कह दिया कि बाकी तो सब ठीक है लेकिन दलितों को रिप्रजेंटेशन नहीं मिल रहा। नेहरु ने उनसे कहा था कि आप चुनाव क्यों नहीं लड़ते? पहाड़िया ने कहा कि आप मुझे टिकट दे दीजिए मैं चुनाव लड़ लूंगा। इसके बाद 1957 में जगन्नाथ पहाड़िया को सवाई माधोपुर सीट से लोकसभा टिकट दे दिया गया, उन्होंने चुनाव लड़ा और दूसरी लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद बनकर सदन में पहुंचे। इस तरह से पहाड़िया का राजनीतिक सफर शुरु हुआ था। यहीं से पहाड़िया के नेहरु परिवार से संपर्क बढ़ने शुरू हुए।
राजस्थान के राजनीतिक विश्लेषक और लेखक श्यामलाल अपनी किताब ‘क्राइसिस ऑफ़ दलित लीडरशिप’ में इस घटना का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया है। वे लिखते हैं - “ राजस्थान में 17 फरवरी 1980 से 5 जून 1980 तक राष्ट्रपति शासन रहा। इसी बीच मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस के नेता रामकिशोर व्यास चुनाव हार गए। इसके साथ ही उन्होंने राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अवसर खो दिया था। उधर, जगन्नाथ पहाड़िया पहले से ही संजय गांधी के बहुत करीब थे। आपातकाल के दौरान मुश्किल वक़्त में संजय गांधी का साथ देकर वे उनके ख़ास बन चुके थे। राज्य में जनता पार्टी सरकार के बिखर जाने के कारण मई 1980 में राजस्थान विधानसभा के चुनाव होने थे। संजय गांधी प्रचार के लिए अजमेर आए थे, तब पत्रकारों ने पूछा कि राजस्थान में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन है तो संजय ने पहाड़िया के कंधे पर हाथ रख दिया। यह स्पष्ट संकेत था। चुनाव में काँग्रेस की जीत के बाद संजय गांधी की पहल से 6 जून 1980 को राजस्थान में पहली बार एक दलित के रूप में पहाड़िया ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। दुर्भाग्यवश इसके 17 दिन बाद ही 23 जून को संजय की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई। इस तरह पहाड़िया के ऊपर जो वरद हस्त था, वो छिटक गया और पहाड़िया अकेले पड़ गए और उनकी धमक कम होती चली गई।
बकौल श्यामलाल, “पहाड़िया के मुख्यमंत्री बनते ही तुरंत ही कांग्रेस के अपर कास्ट नेताओं का विरोध शुरू हो गया। विरोधियों ने राजस्थान की राजनीति में जातिवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगाया और हरिदेव जोशी जैसे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता विरोध में खड़े हो गए। जब पहाड़िया ने राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो उन्होंने राजस्थान की 17.04 प्रतिशत दलित आबादी को एक आवाज़ दी थी; किन्तु तुरंत ही काँग्रेस की ब्राह्मण लॉबी ने पहाड़िया के रास्ते में समस्याएं खड़ी करनी शुरू कर दीं। न केवल उन्होंने पहाड़िया के मंत्रीमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया, बल्कि पहाड़िया को राजस्थान का सबसे कमजोर मुख्यमंत्री प्रचारित करना भी शुरू कर दिया था। नारायण बारेठ इसके लिए हमारे सामाजिक परिवेश को भी जिम्मेदार ठहराते हुए कहते हैं - “ इस पद पर कोई वंचित समाज का कोई व्यक्ति बैठता है तो उसकी काबिलियत, उसके कार्य-प्रदर्शन को बहुत कठिन पैमाने से नापा जाता है और उस कड़ी निगाहें लगी रहती है कि वो कब गलती करे तो उसे गिरा दें।” कल्पित मानते हैं कि “सच यह है कि राजस्थान की कुलीन राजनीति/मीडिया/ बुद्धिजीवियों को जगन्नाथ पहाड़िया जैसा मुंहफट, पढा-लिखा दलित नेता आँखों में चुभ रहा था।” उधर, श्यामलाल बताते हैं, “कांग्रेसियों ने पहाड़िया के विरुद्ध अनेक ज्ञापन प्रधानमंत्री और काँग्रेस-अध्यक्ष इंदिरा गाँधी को उन्हें हटाने के लिए भेजे। हालांकि पहाड़िया इंदिरा गांधी कैबिनेट में भी मंत्री रह चुके थे। उनके पास वित्त, उद्योग, श्रम, कृषि जैसे विभाग रहे; लेकिन उनके ख़िलाफ़ लगातार बनते विरोधी माहौल को देखते हुए इंदिरा गाँधी ने उनसे इस्तीफ़ा मांग लिया और उनके स्थान पर शिव चरण माथुर को 14 जुलाई 1981 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई।”
उच्च जातीय-वर्गीय के विरोध की काँग्रेस की अंदरूनी राजनीति के अलावा पहाड़िया को मुख्यमंत्री पद से हटाने का एक कारण शराबबंदी का निर्णय भी था। पहाड़िया ने मुख्यमंत्री बनने के बाद भी पूर्ववर्ती जनता पार्टी के शराबबंदी के निर्णय को बरकरार रखा था। उनका यह फैसला तो था तो आदर्शवादी लेकिन ‘पॉलिटिकली और इकोनॉमिकली करेक्ट’ नहीं था। इसकी वजह से राज्य को राजस्व का काफी नुकसान भी हो रहा रहा था। केंद्र सरकार की सिफारिशों के अनुसार किसी राज्य में शराबबंदी से होने वाले नुकसान की भरपाई वित्त आयोग नहीं करता था, इनके बावजूद पहाड़िया अपने निर्णय पर अडिग रहे। यह बात राज्य में शराब निर्माताओं और शराब के ठेकेदारों को गहरे धंसे कांटे की तरह बहुत चुभ रही थी। ऐसे में शराब लॉबी भी उनको हटाने के लिए जाल बिछा रही थी। उनकी जगह मुख्यमंत्री बने शिव चरण माथुर ने पद संभालते ही जो पहला काम किया, वह शराबबंदी हटाने का ही था। उस कार्यक्रम में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार (अब दिवंगत) के.के. पुरोहित इस पूरे प्रकरण के लिए तत्कालीन अख़बारों की रिपोर्टिंग को भी जिम्मेदार मानते हैं। उन्होंने 28 जून को 2015 को सोशल मीडिया पर लिखा- “यह बात तब की है जब छपे हुए शब्दों में लोगों का भरोसा था। अखबारों में छपी हर बात को ब्रह्मवाक्य माना जाता था। इस विश्वास की पत्रकारों के कंधों पर बंदूक रख कर पत्र-मालिकों ने हत्या करवा दी। शब्द जो कभी ब्रह्म हुआ करता था उसे भ्रम बनाकर रख दिया। आगे चलकर इसी बात की कल्पित ने भी ताकीद की। बकौल कल्पित - “सारे देश के मीडिया ने इस ख़बर को महादेवी के अपमान से जोड़कर प्रकाशित किया और लिखा कि महादेवीजी ने इन्दिरा गांधी से कहकर पहाड़िया का पत्ता कटवाया। जबकि यह बात अर्धसत्य ही है।” हालांकि पहाड़िया राजनीतिक जीवन मे चार बार सांसद, चार बार विधायक रहे। वे 1989 से 90 तक बिहार और 2009 से 2014 तक हरियाणा के राज्यपाल भी रहे लेकिन महादेवी पर पहाड़िया की यह टिप्पणी उनके साथ ताउम्र चिपकी रही और राजस्थान का यह दलित नेता आजीवन मुख्य धारा की राजनीति करने से वंचित रह कर हाशिए पर चला गया।
हरीश शिवनानी
(स्वतन्त्र लेखन-पत्रकारिता)
ई मेल : shivnaniharish@gmail.com
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